राजस्थान में बारूद की तोप चलाने वाली महिला, धमाके से बताती हैं रमजान की सेहरी और इफ्तार का समय

Rakesh Gupta
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*पांच किलो वजनी हथौड़े से तोप में बारूद भरती
*राजस्थान की इकलौती महिला तोपची
*महफिलखाने की खिड़की से झंडे और टॉर्च का इशारा मिलता

(हरिप्रसाद शर्मा) अजमेर/राजस्थान के अजमेर में रमजान के दौरान सेहरी और इफ्तार का समय किसी घड़ी या अलार्म से तय नहीं होता। बल्कि एक तोप के धमाके से इसकी घोषणा होती है। इस ऐतिहासिक परंपरा को निभाने वाली शख्सियत हैं फौजिया खान, जिन्हें लोग फौजिया तोपची के नाम से भी जानते हैं।

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वे राजस्थान की इकलौती महिला तोपची हैं और सात पीढ़ियों से चली आ रही इस परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं। फौजिया का घर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर, तकिया गदरशाह में स्थित है। रमजान में वे अपने भाई मुहम्मद खुर्शीद के साथ मिलकर तोप दागने की जिम्मेदारी निभाती हैं।


*तोप दागने की प्रक्रिया
रमजान में तीन बार तोप दागी जाती है। एक बार सेहरी के लिए और दो बार इफ्तार के समय। फौजिया अपने पांच किलो वजनी हथौड़े से तोप में बारूद भरती हैं, जिसे बिजली बारूद कहा जाता है। इसके बाद गोबर के उपलों से नाल को बंद किया जाता है।
सेहरी के समय, 3:30 बजे, तोप को दरगाह के सामने ऊंचाई पर रखा जाता है और जब महफिलखाने की खिड़की से झंडे और टॉर्च का इशारा मिलता है, तो फौजिया अगरबत्ती से पलीते को जलाकर तोप दागती हैं। धमाके की आवाज पूरे शहर में गूंजती है, और इसके साथ ही सेहरी या इफ्तार की शुरुआत होती है।


*तोप चलाने की परंपरा
फौजिया के परिवार को यह जिम्मेदारी विरासत में मिली है। वर्तमान में यह परंपरा आठवीं पीढ़ी निभा रही है। फौजिया ने महज आठ साल की उम्र में पहली बार अपने पिता मुहम्मद हनीफ की देखरेख में तोप चलाई थी। आज वे इस काम को 30 साल से कर रही हैं। उनके पूर्वजों के पास पहले एक क्विंटल वजनी पहियों वाली तोप थी, लेकिन प्रशासन ने बढ़ती आबादी को देखते हुए अब उन्हें एक छोटी और कॉम्पैक्ट तोप दी है।


*खास आयोजनों में तोप दागने की परंपरा
रमजान के अलावा, फौजिया दरगाह से जुड़े सभी बड़े आयोजनों में भी तोप दागती हैं। जुम्मा, ईद, बकरीद और उर्स के दौरान। खासतौर पर ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की पैदाइश पर 21 तोपों की सलामी दी जाती है, और गरीब नवाज के उर्स की शुरुआत 25 तोपों की सलामी से होती है।


*परिवार और जिम्मेदारी
फौजिया सात बहनों में अकेली हैं, जो इस परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं। उनकी शादी करने की कोई इच्छा नहीं है। वे कहती हैं, तोप चलाना मेरा शौक नहीं, मेरी खानदानी जिम्मेदारी है। अगर घर में जनाजा भी पड़ा हो, तो भी पहले तोप दागने की जिम्मेदारी निभाते हैं। 18 साल पहले, जब उनकी 10 साल की भतीजी का इंतकाल हुआ, तब भी फौजिया ने पहले तोप चलाई और फिर अंतिम संस्कार में शामिल हुईं।


*कानूनी प्रक्रिया और सुरक्षा
तोप चलाने के लिए कई कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना पड़ता है। दरगाह कमेटी कलेक्टर से परमिशन लेती है। यह परमिशन थाने में सर्किल इंस्पेक्टर को दिखानी होती है, तब जाकर तोप दागने की अनुमति मिलती है। बारूद की परमिट दरगाह के नाजिम से लिखवानी पड़ती है। बारूद ब्यावर के पास के किसी गांव से लाया जाता है और पूरे महीने के लिए 4-5 किलो बारूद इकट्ठा किया जाता है। रमजान में तोप फौजिया के घर में रहती है, लेकिन हर हफ्ते जुम्मे के दिन इसे इस्तेमाल करने के बाद दरगाह थाने की त्रिपोलिया गेट पुलिस चौकी में जमा कराया जाता है।


*आर्थिक स्थिति और सरकारी सहायता
फौजिया के परिवार को इस काम के लिए दरगाह से एक तय खर्च मिलता है, जिसे बारूद सरफा कहा जाता है। पहले उनके पिता को ढाई रुपये मिलते थे। अब यह खर्च 3,000 रुपये प्रति महीना हो गया है। साथ ही, सालाना 5,000 रुपये मेडिकल सहायता के रूप में मिलते हैं। फौजिया कहती हैं कि सम्मान की बात करें तो लड़की होकर तोप चलाने के बावजूद उन्हें वह मान्यता नहीं मिलती, जो एक महिला पायलट या एथलीट को मिलती है।


वे कहती हैं, लड़कियां हवाई जहाज उड़ाती हैं, गाड़ी चलाती हैं, खेलों में भाग लेती हैं और उन्हें सम्मान मिलता है। लेकिन मैं अकेली महिला तोपची होने के बावजूद वह सम्मान नहीं पाती। इसका दुख है, लेकिन गरीब नवाज ने जो दिया है, उसके लिए शुक्रगुजार हूं।


*नई पीढ़ी को सिखाने की जिम्मेदारी
अब फौजिया अपनी नौ साल की भतीजी सहर को भी तोप दागना सिखा रही हैं। वे कहती हैं, मैं खानदान की पहली लड़की थी जिसने तोप चलाई, लेकिन आखिरी नहीं होऊंगी। फौजिया खान का जीवन साहस, समर्पण और परंपरा के प्रति गहरी निष्ठा का प्रतीक है। वे न सिर्फ अपनी खानदानी जिम्मेदारी निभा रही हैं, बल्कि इस विरासत को अगली पीढ़ी तक भी पहुंचा रही हैं। चाहे समाज की रूढ़ियां हों या सम्मान की कमी, फौजिया ने हर चुनौती का सामना किया है और अजमेर की इस ऐतिहासिक परंपरा को जीवित रखा है।

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