सारण: 49वीं पुण्यतिथि पर स्मरण गांधी जी के विचारों का अनुसरण करती थी स्वतंत्रता सेनानी स्वर्णलता देवी…..
49वीं पुण्यतिथि पर स्मरण
गांधी जी के विचारों का अनुसरण करती थी स्वतंत्रता सेनानी स्वर्णलता देवी
फोटो 01 स्वतंत्रता सेनानी स्वर्णलता देवी (फाइल फोटो)
ड़ॉ.विद्या भूषण श्रीवास्तव
बिहार न्यूज़ लाईव / सारण डेस्क: छपरा कार्यालय।
स्वतंत्रता आंदोलन में स्वर्णलता देवी का महत्वपूर्ण योगदान है।महात्मा गांधी के विचारों का सदैव अनुसरण करती थी।
20 जनवरी 1910 को पश्चिम बंगाल के खुलना जिले में महान् स्वतन्त्रता सेनानी परिवार में प्रज्ज्वलित शिखा के रूप में एक बच्ची का जन्म हुआ जिसका नाम माता-पिता ने स्वर्णलता रखा। क्रान्तिकारी पिता ललित मोहन घोषाल के सान्निध्य में स्वर्णलता का बचपन परतन्त्रता को दूर करने और स्वतन्त्रता के बारे में सोचते ही बीतता था। बच्ची स्वर्णलता का जीवन देखकर यह कहा जा सकता है कि बचपन संवारने और तराशने की चीज होती है। क्रान्ति की ज्वाला को जगाए रखने में और देश की आजादी में अपना जीवन होम करने में क्रान्तिकारियों को समिधा अपने घर से भी प्राप्त हुआ करती थी।
मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्था में कुमारी स्वर्णलता भाषण देने और कविता करने में पारंगत हो चुकी थीं।उस समय गाँधी जी का महत्त्व इससे भी पता चलता है कि बच्ची स्वर्णलता ने बंगाल के कुमारतुली पार्क में उनका स्वागत करते हुए उनके चरखा की तुलना “सुदर्शन चक्र” से किया और उसी से आजादी मिलने की बात कही।
क्रान्तिकारी पिता के साथ कुमारी स्वर्णलता स्वतन्त्रता के यज्ञ में आहुतियां देने वाले सभी प्रमुख नेताओं से मिली जिनमें मन्मथनाथ गुप्त, अमृतपाद डांगे,वीवी गिरि, मोतीलाल नेहरू, डॉ.सम्पूर्णानन्द, डॉ.राजेन्द्र प्रसाद, महात्मा गांधी आदि प्रमुख थे।
आन्दोलन के इतिहास में कुमारी स्वर्णलता के जीवन का प्रेरक प्रसंग है कि वे बंगला भाषी थीं किन्तु हिन्दी भाषी प्रदेशों में अपनी बात रखने के लिए वे हिन्दी सीखने अवध प्रांत गईं थीं। उनके भाषण जनसमूह के हृदय को उद्वेलित कर देते थे और वे अपना सर्वस्व समर्पित करने के लिए तैयार हो उठते थे।
धरना, प्रदर्शन भाषण और विरोध के क्रम में कुमारी स्वर्णलता को तत्कालीन प्रशासन के द्वारा शारीरिक और मानसिक यातनाएँ दीं गईं किन्तु जिसके मन में आजादी की ज्वाला जल रही थी जिसे कोई यातना तोड़ नहीं सकती थी। धीरे-धीरे कुमारी स्वर्णलता विवाह योग्य हो गईं। उनका विवाह बनारस के प्रसिद्ध क्रांतिकारी कुमुद नाथ चटर्जी के पुत्र अमर नाथ चटर्जी से हो गया। अमरनाथ चटर्जी उग्र क्रांतिकारी दल के सदस्य थे और स्वर्णलता गाँधी जी के विचारों का अनुसरण करतीं थीं। फिर भी दोनों का जीवन सहयोगात्मक और समन्वयात्मक था।
बनारस में दोनों पति पत्नी ने आजादी की मशाल जलाए रखा। गाँधी जी के आह्वान पर सन् 1942 में भारत का मुक्ति संग्राम “करो या मरो” के नारे के साथ प्रारम्भ हो गया। सरकार विरोधी प्रदर्शन के कारण चटर्जी दम्पती पर भी वारंट जारी हो गया। गिरफ्तारी से बचने के लिए स्वर्णलता जी अपने तीन छोटे बच्चों के साथ छपरा आ गईं। उस समय से जीवन के अन्तिम क्षण तक यहीं की होकर रह गईं। अमरनाथ चटर्जी ने जीवन यापन के लिए होमियोपैथी का प्रैक्टिस प्रारम्भ किया।
छपरा में जब डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से स्वर्णलता जी की भेंट हुई तो राजेन्द्र प्रसाद ने उनसे भोजपुरी में ही कहा,आव बइठो। यह एक पंक्ति स्वतंत्रता संग्राम की अविस्मरणीय पंक्ति बन गई। स्वर्णलता देवी के जीवन को नजदीक से देखने वाले बताते रहे हैं कि घनघोर गरीबी और अभाव में भी स्वर्णलता देवी अपने सिद्धान्त से रत्ती भर भी नहीं हिलीं। अपने पुत्र अमिय नाथ चटर्जी के मित्रों को वे पुत्रवत ही मानती थीं जिनमें प्रोफेसर के. के. द्विवेदी और प्रोफेसर हरिकिशोर पांडेय का नाम प्रमुख है। श्रीपति परमात्मा की माँ से जब वे मिलती थीं तो बंगला में ही बात करती थीं। प्रसिद्ध समाजसेविका व लेखिका कश्मीरा सिंह बताती है कि
उनके सिद्धांतों की एक तस्वीर विधान परिषद् के सदस्य के रूप में नामित करने के प्रसंग में दिखती है जब उन्होंने विनम्रता पूर्वक कोई लाभ लेने से इंकार कर दिया था।आज वैसे न तो क्रान्तिकारी हैं न सिद्धान्तवादी ! देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है किन्तु यह “हर घर तिरंगा” अभियान तक सिमटकर रह गया है। जबकि “हर घर स्वतन्त्रता सेनानी स्मरण” दिवस की बात होनी चाहिए थी। अपने मन में भाव हो तो सरकारी फरमान का इंतजार क्यों हो ? वैसे भी,
सारण स्वतन्त्रता सेनानियों का गढ़ रहा है। स्त्री,पुरुष और बच्चों ने मिलकर देश की आजादी में अपना योगदान दिया था। किन्तु किसी सारण वासी ने सार्वजनिक रूप से किसी स्वतन्त्रता सेनानी को याद नहीं किया। कुछ वैसे बुद्धिजीवी नहीं रहते तो लोग कुछ दिनों के बाद अपने आजादी के दीवानों को भूल ही जाएं !
स्वर्णलता देवी ने अपने जीवन काल में कई बालिका विद्यालय की स्थापना की थीं किन्तु आज एक भी विद्यालय उनके नाम पर नहीं है। यह सरकार का ही नहीं बल्कि सारण वासियों का भी कर्त्तव्य है कि अपने स्वतन्त्रता सेनानी के नाम पर एक विद्यालय तो अवश्य स्थापित करे !
सारण में रहते हुए स्वर्णलता देवी ने 27 अगस्त 1973 को अपने तीन बच्चों और पति के सामने अपना देह त्याग दिया।उसी वर्ष से उनके पुत्र सारण सपूत साहित्यकार एवं नाटककार अमिय नाथ चटर्जी ने उनका पुण्यतिथि मनाना प्रारम्भ किया था जो आज तक मनाया जाता रहा है। यह अपने आप में एक इतिहास है। कई वर्षों तक साहित्य व संस्कृति संस्था ‘चर्चना” के माध्यम से ड़ॉ विश्वरंजन ,ड़ॉ धीरेंद्र बहादुर चांद अपने जीवन काल में इनकी जयंती व पुण्यतिथि मनाते रहे।अब तो सामाजिक संस्था “नया क्षितिज”के माध्यम से इनकी जयंती व पुण्यतिथि पर लोग याद रहे है।उधर राजनीतिक विश्लेषक ड़ॉ लाल बाबू यादव,साहित्यप्रेमी ओम प्रकाश गुप्ता,अवकाशप्राप्त प्राचार्य अरुण कुमार सिंह ,रालोसपा के प्रांतीय उपाध्यक्ष देव कुमार सिंह,पूर्व प्राचार्य ड़ॉ मृदुल कुमार शरण आदि ने स्पष्ट कहा है कि स्वतंत्रता सेनानी स्वर्णलता देवी के नाम पर प्रमंडलीय मुख्यालय में सड़क का नामकरण व स्मारक स्थल होना चाहिए ताकि आज की युवा पीढ़ी उनके क्रांतिकारी इतिहाद को जीवंतता प्रदान कर सके।
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