संवाददाता,अंकित सिंह।
हमारी अनूठी संस्कृति व परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में सामा-चकेवा के रूप में आज भी जिंदा है। भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक सामा-चकेवा हमारी लोक-परंपरा का अनूठा उदाहरण है। पारंपरिक लोकगीतों से जुड़ा सामा-चकेवा हमारी संस्कृति की वह खासियत है जो सभी समुदायों के बीच व्याप्त जड़ बाधाओं को तोड़ता है। सामा चकेवा पर्व का संबंध पर्यावरण से भी है। सामा चकेवा की तैयारियां दीपावली के समय से हीं शुरू हो जाती है। कार्तिक मास की पंचमी शुक्ल पक्ष तिथि से सामा चकेवा के मूर्ति बनाने का कार्य शुरू हो जाता है। पंचमी से पूर्णिमा तक चलने वाला यह लोकपर्व उत्साह और उल्लास से पूरी तरह सरावोर है।
आठ दिनों तक यह उत्सव मनाया जाता है और नौवें दिन बहनें अपने भाइयों को धान की नई फसल का चूड़़ा एवं दही खिलाकर सामा-चकेवा की मूर्तियों को तालाब में विसर्जित कर देती है। सामा-चकेवा लोकपर्व को लेकर बच्चों से लेकर बुजुर्ग महिलाओं तक में जबरदस्त उमंग व उत्साह देखा जा रहा है। प्रीति ने बताया कि इस खेल में उसके साथ चाची-दादी भी पूरा हिस्सा ले रही हैं। शैजल सिंह,प्रीति प्रिया,दीपिका,नेहा,चुनमुन,निशु,रिया,अनुपम आदि सामा-चकेवा का खेल खेलने से लेकर मूर्ति बनाने और उसके रंग-रोगन में भी हाथ बंटाया है। प्रीति ने बताया कि शाम ढ़लते हीं बहनों द्वारा डाला में सामा-चकेवा को सजाकर सार्वजनिक स्थान पर बैठकर गीत गाया जाता है।
जैसे सामा चकेवा अइह हेज्! वृंदावन में आग लगलेज्! सामा चकेवा खेल गेलीए हे बहिनाज् आदि गीतों द्वारा हंसी-ठिठोली की जाती है और भाई को दीर्घायु होने की कामना की जाती है। भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक व विलुप्त होती लोक-परंपरा की अनूठी मिसाल भी सामा-चकेवा हिमालय की तलहट्टी से लेकर गंगा तट तक और संपूर्ण कोशी और मिथिलांचल में धूमधाम से मनाया जाता है।
यह पर्व मुख्यत: कुवांरी लड़कियों व नवविवाहिताओं में अधिक लोकप्रिय है। इस लोक-नाट्य में भाई-बहन का अटूट प्यार,ननद-भौजाई की नोंक-झोंक तथा पति-पत्नी का प्रेम अभिव्यंजित हुआ है। सामा-चकेवा में एक पात्र होता है चुगला। सबसे बड़ा चुगलखोर। यानी पीठ पीछे निंदा करने में माहिर। सामा-चकेबा में और भी कई पात्र दिलचस्प हैं।
सामा बहन है चकेवा भाई। अन्य पात्र हैं-चुगला, सतभइया,वनतीतर, झांझी,कुत्ता एवं वृंदावन। इस लोक-नाट्य का प्रदर्शन नदी किनारे-या वन में होता है। बताया जाता है कि सामा खेलने के दौरान चुगला-चुगली को जलाने का उद्देश सामाजिक बुराइयों का नाश करना है। शाम में सामा चकेवा का विशेष श्रृंगार भी किया जाता है। उसे खाने के लिए धान की बालियां दी जाती है। शाम होने पर गांव की युवतियां एवं महिलाएं अपनी सखी सहेलियों की टोली में मैथिली लोकगीत गाते हुए अपने-अपने घरों से बाहर निकलती हैं।
