श्राद्धविधि : अंधविश्वास  नहीं, बल्कि शास्त्र !

Rakesh Gupta
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प्रस्तावना :हिन्दू धर्म में पूर्वजों को सद्गति प्रदान करने हेतु श्राद्धविधि बताई गई है; किंतु कुछ लोग बिना किसी अध्ययन के श्राद्ध के विषय में भ्रांतियां फैलाते हैं। उदाहरणार्थ –‘श्राद्धविधि अंधविश्वास है और यह ब्राह्मणों का पेट भरने के लिए बताया गया है।’‘श्राद्धविधि एक दिखावा है।’‘श्राद्ध करने की अपेक्षा अस्पताल या विद्यालय को दान दें।’’श्राद्ध करने से अच्छा है जीवित रहते ही माता-पिता की सेवा करें।’
धर्मशिक्षा के अभाव और सनातन परंपराओं का पालन न होने के कारण अनेक लोग इन भ्रांतियों के शिकार होते हैं। ऐसा न हो और पितरों की सद्गति तथा मानव के कल्याण के लिए प्रत्येक व्यक्ति शास्त्रोक्त श्राद्धविधि श्रद्धा से करे – इसी हेतु यह लेख प्रस्तुत है।

श्राद्धविधि से दिवंगत पितरों को ऊर्जा मिलनाहिन्दू धर्म कहता है – ‘देह का नाश होता है, किंतु आत्मा का नाश नहीं होता।’ हर व्यक्ति को मृत्यु के बाद उसके कर्मानुसार पुनर्जन्म मिलता है। संक्षेप में, ‘कर्मफल सिद्धांत’ और ‘पुनर्जन्म सिद्धांत’ हिन्दू धर्म में प्रतिपादित हैं। इन्हें कोई माने अथवा न माने, ये सिद्धांत सब पर लागू होते हैं।जिन पूर्वजों को मृत्यु के बाद सद्गति नहीं मिली होती, उन्हें श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान आदि विधियों के माध्यम से आवश्यक ऊर्जा प्राप्त होती है। मत्स्यपुराण में पिंडोदक क्रिया से पितरों के तृप्त होने का वर्णन है। श्राद्ध के मंत्रोच्चारों में पितरों को गति देने की सूक्ष्म शक्ति होती है। पितरों को हविर्भाग देने से वे संतुष्ट होते हैं और कष्टों से मुक्ति पाते हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण कहता है – ‘देवकार्य से अधिक महत्त्वपूर्ण पितृकार्य है।’ इसीलिए हर मंगल कार्य से पूर्व नांदी श्राद्ध का विधान है।जैसे भारत से अमेरिका पैसे भेजते समय रुपया डॉलर में परिवर्तित होता है, वैसे ही श्राद्धविधि से ऊर्जा पितरों तक पहुँचती है।

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श्राद्ध और दान – अलग संकल्पनाएंकुछ लोग कहते हैं, श्राद्ध की जगह गरीबों को दान दीजिए, विद्यालय या अस्पताल को दान दीजिए। परंतु यह रोग एक और उपचार दूसरा जैसा है। श्राद्ध और दान दोनों अलग विषय हैं।श्राद्ध किए बिना केवल दान करने से पितर प्रसन्न नहीं होते; क्योंकि उस दान का फल पितरों तक नहीं पहुँचता। श्राद्ध से पितरों को आहार मिलता है। भूख केवल भोजन से मिटती है, दान से नहीं।

षड्यंत्रकारी भावनात्मक आवाहन‘श्राद्ध करने की अपेक्षा जीवित रहते माता-पिता की सेवा करो’ – इस प्रकार के भावनात्मक संदेश पितृपक्ष में फैलाए जाते हैं। परंतु हिन्दू धर्म ने कभी यह नहीं कहा कि माता-पिता को छोड़ दो। उलटे हिन्दू संस्कृति में कहा गया – ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथिदेवो भव।’जीवित रहते सेवा करना और मृत्यु के बाद श्राद्ध करना – दोनों ही पुत्रों का कर्तव्य है।

इतिहास से प्रमाणरामायण में श्रीराम ने पिता दशरथ की मृत्यु पर श्राद्ध किया था। राजा भगीरथ ने कठोर तपश्चर्या करके गंगा को पृथ्वी पर लाया और पूर्वजों को मुक्त किया। यही कारण है कि प्रयास को ‘भगीरथ प्रयास’ कहा जाता है।
इससे स्पष्ट है कि श्राद्धविधि प्राचीन है और ब्राह्मणों के पेट भरने से उसका कोई संबंध नहीं है।

वंशशुद्धि हेतु कुलधर्म पालनपितर वंशरक्षक हैं। श्राद्धादि कुलधर्म का पालन करने से वंशशुद्धि सुनिश्चित होती है। कुलधर्म न पालन करने पर मातृदोष और पितृदोष बढ़ते हैं, जिससे परिवार का नाश होता है।

पितृदोष के लक्षणआजकल अधिकांश लोग पितृदोष से ग्रस्त हैं, क्योंकि श्राद्ध और साधना नहीं करते। इसके लक्षण हैं :– घर में लगातार झगड़े,नौकरी न मिलना, आर्थिक अस्थिरता, गंभीर रोग, विवाह न होना, गर्भधारणा न होना या गर्भपात, विकलांग या मन्दबुद्धि संतान, परिवार में व्यसन इत्यादि।
इनसे बचने हेतु श्राद्धविधि और ‘श्री गुरुदेव दत्त’ का नामस्मरण आवश्यक है।

निष्कर्षहिन्दू धर्म में बताए आचार अंधविश्वास नहीं, बल्कि शास्त्र हैं। इसमें उच्चकोटि का विज्ञान निहित है। आधुनिक विज्ञान जहाँ आज मल्टीवर्स थ्योरी (Multiverse theory) अर्थात हमारी एकमात्र ब्रह्मांड के स्थान पर अनगिनत ब्रह्मांडकी बात करता है, हिन्दू धर्म ने शताब्दियों पूर्व ही उसका उल्लेख किया है।
शास्त्र शाश्वत है। उस पर श्रद्धा रखने से मानव का कल्याण होता है । इसलिए श्राद्ध विषयक अपप्रचार का शिकार न होकर, प्रत्येक को यथाशक्ति श्राद्ध करना चाहिए, ‘श्री गुरुदेव दत्त’ का नामस्मरण करना चाहिए और साधना द्वारा आत्मकल्याण करना चाहिए।

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