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एक किताब ने खोला दरगाह में मंदिर होने का राज! कभी होती थी पूजा… जानें क्या है सच्चाई?

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*हिंदू सेवा के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता की ओर से न्यायाधीश मनमोहन चंदेल के समक्ष पेश की गई है।

(हरिप्रसाद शर्मा) अजमेर:सूफी इस्लाम को मानने वाले राजस्थान की अजमेर शरीफ दरगाह को सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में से एक मानते हैं यहां मुस्लिम संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मजार है, जहां हर धर्म के लोग जियारत और अकीदत पेश करने आते हैं, लेकिन ख्वाजा कहां से आए थे और इस दरगाह का इतिहास क्या है ? लेकिन उसके पहले अजमेर पर लिखी गई एक किताब का जिक्र करते हैं, जो यहां के हिस्टोरिकल फैक्ट को बताती है। इसके चैप्टर 8 के पेज 82 से 89 तक अजमेर की ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह का इतिहास बताया गया है। इसी पुस्तक में दरगाह की जगह एक मंदिर होने की बात कही गई है। इस मंदिर में पूजा अर्चना किए जाने की भी बात लिखी गई है। ये किताब हिंदू सेवा के राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु गुप्ता की ओर से न्यायाधीश मनमोहन चंदेल के समक्ष पेश की गई है।

क्या लिखा है किताब में ?

, किताब में इस बात का जिक्र है कि यहां ब्राह्मण दंपती रहते थे। वे दरगाह स्थल पर बने महादेव मंदिर में पूजा-अर्चना करते थे। इसके अलावा कई अन्य तथ्य हैं, जो साबित करते हैं कि दरगाह से पहले यहां शिव मंदिर रहा था।

*ये किताब इतनी चर्चा में क्यों आई और कौन हैं इस किताब के लेखक,

इस किताब के लेखक का नाम हरबिलास शारदा है। हरबिलास शारदा कोई आम व्यक्ति नहीं थे। वो जोधपुर हाईकोर्ट में सीनियर जज के रूप में रहे हैं। इन्होंने अपनी सेवा अजमेर मेरवाड़ा (1892) के न्यायिक विभाग में भी रहकर दी है। बड़ी बात ये है कि अजमेर में उनके नाम से हरबिलास शारदा मार्ग भी है। इन्होंने ही 1911 में इस किताब को लिखा था।

 

*क्या है दरगाह का इतिहास ?

माना जाता है कि सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती पैगंबर मोहम्मद साहब के अनुयायी थे। उन्हें लोग ‘ख्वाजा गरीब नवाज’ के नाम से भी पुकारते हैं। वो एक फारसी इस्लामिक स्कॉलर थे। जिनका जन्म 1 फरवरी 1143 में अफगानिस्तान के हेरात प्रांत के चिश्ती शरीफ (Chishti Sharif) में हुआ था। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती सुल्तान इल्तुतमिश के शासन में भारतीय उपमहाद्वीप में आए थे, वो अपने मानवता के उपदेशों की वजह से काफी मशहूर हुए। यही वजह है कि हर धर्म के लोग उन्हें पसंद करते थे। उन्होंने अजमेर को अपना घर बना लिया और मृत्यु तक वो यहीं रहे ।

*किसने कराया दरगाह का निर्माण?

प्राप्त जानकारी के मुताबिक सूफी संत ख्वाजा गरीब नवाज के सम्मान में मुगल राजा हुमायूं ने इस दरगाह का निर्माण करवाया था।दरगाह के अंदर विशाल चांदी के दरवाजों की एक श्रृंखला के जरिए प्रवेश किया जा सकता है। यहां संत की कब्र मौजूद है। संगमरमर और सोने की परत से बना, वास्तविक मकबरा चांदी की रेलिंग और संगमरमर के पत्थरों से सुरक्षित है।

अपने शासनकाल के दौरान मुगल सम्राट अकबर हर साल अजमेर की तीर्थयात्रा करते थे। उन्होंने और बादशाह शाहजहां ने दरगाह परिसर के अंदर मस्जिदें बनवाईं। अकबर की जियारत का सीन मशहूर फिल्म ‘जोधा-अकबर’ में फिल्माया गया है। 1568 और 1614 में मुगल राजा अकबर और जहांगीर ने विशाल डेग दान में दी थीं। जो अभी भी यहां पर हैं। ये दोनों डेगों का इस्तेमाल आज भी किया जाता है। इसमें चावल, घी, काजू, बादाम, चीनी और किशमिश की मदद से लंगर तैयार किया जाता है।

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*बादशाह अकबर पैदल आए थे दरगाह

अजमेर मे ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह है। लोग यहां अत्यंत श्रद्धा के साथ मन्नत मांगने आते हैं और मुराद पूरी होने पर ख्वाजा साहिब का शुक्राना अदा करने आते हैं। अरावली की पहाड़ियों से घिरा अजमेर बहुत ही ख़ूबसूरत जगह है। कहा जाता है कि मुगल बादशाह अकबर आगरा से 437 किमी. पैदल ही चलकर ख़्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह मे पुत्र प्राप्ति की कामना लिए आया था।

*सभी धर्मों के आते हैं लोग

अजमेर में स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में हर तबके के चेहरे दिखाई देते हैं।चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो। यहां अक्सर बॉलीवुड स्टार्स अपनी फिल्मों की सफलता के लिए दुआ मांगने आते रहे हैं। दरगाह से सभी धर्मों के लोगों की आस्था जुड़ी हुई है। इसे सर्वधर्म सद्भाव की अदभुत मिसाल भी माना जाता है। ख्वाजा साहब की दरगाह में हर मजहब के लोग अपना मत्था टेकने आते हैं। ऐसी मान्यता है कि जो भी ख्वाजा के दर पर आता है कभी भी खाली हाथ नहीं लौटता है, यहां आने वाले हर भक्त की मुराद पूरी होती है।

ख्वाजा की मजार पर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू, बीजेपी के दिग्गत नेता स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी, देश की पहली महिला पीएम इंदिरा गांधी, बराक ओबामा समेत कई नामचीन और मशहूर शख्सियतों ने अपना मत्था टेका है। इसके साथ ही ख्वाजा के दरबार में अक्सर बड़े-बड़े राजनेता एवं सेलिब्रिटीज आते रहते हैं और अपनी अकीदत के फूल पेश करते हैं एवं आस्था की चादर चढ़ाते हैं।

*फारस से आए थे भारत

ख्वाजा गरीब नवाज ने पैदल ही हज यात्रा की थी। वहीं ऐसा माना जाता है कि करीब 1192 से 1195 के बीच में वे फारस से भारत यात्रा पर आए थे, वे भारत में मुहम्मद से आशीर्वाद प्राप्त करना चाहते थे। ख्वाजा साहब भारत आने के बाद शुरुआत में थोड़े दिन दिल्ली रुके और फिर लाहौर चले गए एवं अंत में वे मुइज्ज़ अल-दिन मुहम्मद के साथ अजमेर आए और यहां की वास्तविकता से काफी प्रभावित हुए। इसके बाद उन्होंने अजमेर रहने का ही फैसला लिया। यहां उन्हें काफी सम्मान भी मिला था। ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के पास कई चमत्कारी शक्तियां थीं, जिसकी वजह से लोगों का इनके प्रति काफी विश्वास था। ख्वाजा साहब ने मुस्लिम और हिन्दुओं के बीच में भेदभाव को खत्म करने एवं मिलजुल कर रहने का संदेश दिया।

इस सूफी संत के महान उपदेशों और शिक्षाओं के बड़े-ब़ड़े मुगल बादशाह भी कायल थे। उन्होंने लोगों को कठिन परिस्थितियों में भी खुश रहना, अनुशासित रहना, सभी धर्मों का आदर करना, गरीबों, जरूरतमंदों की सहायता करना, आपस में प्रेम करना समेत कई महान उपदेश दिए। उनके महान उपदेश और शिक्षाओं ने लोगों पर गहरा प्रभाव छोड़ा और वे उनके मुरीद हो गए।

महान सूफी संत ने ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने करीब 114 साल की उम्र में ईश्वर की एकांत में प्रार्थना करने के लिए खुद को करीब 6 दिन तक एक कमरे में बंद कर लिया था और अपने नश्वर शरीर को अजमेर में ही त्याग दिया। वहीं जहां उन्होंने अपनी देह त्यागी थी, वहीं ख्वाजा साहब का मकबरा बना दिया गया, जो कि अजमेर शरीफ की दरगाह, ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह और ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह के रुप में मशहूर है।

*दरगाह की बनावट

इतिहासकारों की माने तो सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी ने करीब 1465 में अजमेर शरीफ की दरगाह का निर्माण करवाया था। वहीं बाद में मुगल सम्राट हुंमायूं, अकबर, शाहजहां और जहांगीर ने इस दरगाह का जमकर विकास करवाया। इसके साथ ही यहां कई संरचनाओं एवं मस्जिद का निर्माण भी किया गया। इस दरगाह में प्रवेश के लिए चारों तरफ से बेहद भव्य एवं आर्कषक दरवाजे बनाए गए हैं जिसमें निजाम गेट, जन्नती दरवाजा, नक्कारखाना (शाहजहानी गेट), बुलंद दरवाजा शामिल हैं। इसके अलावा ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह के अंदर बेहद सुंदर शाहजहानी मस्जिद भी बनी हुई है। यह मस्जिद मुगलकालीन वास्तुकला की एक नायाब नमूना मानी जाती है। इस आर्कषक मस्जिद की इमारत में अल्लाह के करीब 99 पवित्र नामों के 33 खूबसूरत छंद लिखे गए हैं। इसके अलावा यहां शफाखाना, अकबरी मस्जिद भी हैं, इस मस्जिद में वर्तमान में मुस्लिम समुदाय के बच्चों को इस्लाम धर्म के पवित्र ग्रंथ कुरान की शिक्षा भी दी जाती है।

*हर साल होता है उर्स का आयोजन

अजमेर में उर्स त्योहार ऐसा माना जाता है कि जब सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती 114 वर्ष के थे, तो उन्होंने प्रार्थना करने के लिए छह दिनों तक खुद को बंद रखा और इसके बाद उन्होंने अपने नश्वर शरीर को यहीं त्याग दिया था। इसलिए, हर साल ‘उर्स’ एक खूबसूरत उत्सव इस्लामी चंद्र कैलेंडर के सातवें महीने में दरगाह में छह दिनों के लिए आयोजित किया जाता है। दरगाह का मुख्य द्वार जो रात में बंद रहता है उसे इस उत्सव के दौरान 6 दिनों के लिए दिन और रात में खुला रखा जाता है।

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